History of Chittorgarh Fort in Hindi – चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण इतिहास

Chittorgarh Fort  – उत्तर भारत के सबसे महत्वपूर्ण किलों में से एक चित्तौड़गढ़ का किला राजपूतों के साहस, शौर्य, त्याग, बलिदान और बड़प्पन का प्रतीक है। चित्तौड़गढ़ का यह किला राजपूत शासकों की वीरता, उनकी महिमा एवं शक्तिशाली महिलाओं के अद्धितीय और अदम्य साहस की कई कहानियों को प्रदर्शित करता है।

राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में बेराच नदी के किनारे स्थित चित्तौड़गढ़ के किले को न सिर्फ राजस्थान का गौरव माना जाता है, बल्कि यह भारत के सबसे विशालकाय किलों में से भी एक है, जिसका निर्माण 7वीं शताब्दी में मौर्य शासकों द्धारा किया गया था।

करीब 700 एकड़ की जमीन में फैला यह विशाल किला अपनी भव्यता, आर्कषण और सौंदर्य की वजह से साल 2013 में यूनेस्को द्धारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।

आपको बता दें कि इस किले के निर्माण को लेकर एक किवंदति भी है, जिसके अनुसार इस किले का निर्माण सिर्फ एक ही रात में महाभारत के समय पांच पाण्डु भाइयों में से सबसे बलशाली राजकुमार भीम ने अपने अद्भुत शक्ति का इस्तेमाल कर किया था।

फिलहाल, Chittorgarh Fort  का यह किला प्राचीन कलाकृति के सर्वोत्तम उदाहरण में से एक है।

Chittorgarh Fort संक्षिप्त विवरण –  

 स्थान  चित्तौड़गढ़, राजस्थान (भारत)
 निर्माण  करीब 7वीं शताब्दी में
 किसने करवाया निर्माण  मौर्य शासकों द्धारा
 प्रसिद्धि  राजपूतों के साहस, बलिदान और वीरता का प्रतीक

चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण इतिहास – Construction history of Chittorgarh Fort

चित्तौड़गढ़ में करीब 180 मीटर की पहाड़ी में स्थित यह किला भारत का सबसे विशाल किला है, जिसके निर्माण और इतिहास हजारों साल पुराना माना जाता है।

इस भव्य किले के निर्माण कब और किसने करवाया इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है, लेकिन महाभारत काल में भी इस विशाल किले का होना बताया जाता था। इतिहासकारों की माने तो इस विशाल दुर्ग का निर्माण मौर्य वंश के शासकों द्धारा 7वीं शताब्दी में करवाया गया था।

वहीं ऐसा भी कहा जाता है कि स्थानीय कबीले के मौर्य शासक राजा चित्रांग ने इस किले का निर्माण कर इसका नाम चित्रकोट रखा था।

इसके अलावा चित्तौड़गढ़ के इस विशाल किले के निर्माण को लेकर एक किवंदती के मुताबिक इस प्राचीनतम और भव्य किले को महाभारत के भीम ने बनवाया था, वहीं भीम के नाम पर भीमताल भीमगोड़ी, समेत कई स्थान आज भी इस क़िले के अंदर बने हुए हैं।

राजस्थान के मेवाड़ में गुहिल राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल ने अपनी अदम्य शक्ति और साहस से मौर्य सम्राज्य के अंतिम शासक को युद्ध में हराकर करीब 8वीं शताब्दी में चित्तौड़गढ़ पर अपना शासन कायम कर लिया और करीब 724 ईसवी में भारत के इस विशाल और महत्वपूर्ण दुर्ग चित्तौड़गढ़ किले की 724 ईसवी में स्थापना की।

वहीं इसके बाद मालवा के राजा मुंज ने इस दुर्ग पर अपना कब्जा जमा लिया और फिर यह किला गुजरात के महाशक्तिशाली शासक सिद्धराज जयसिंह के अधीन रहा।

12वीं सदी में चित्तौड़गढ़ का यह विशाल किला एक बार फिर गुहिल राजवंश के अधीन रहा। इस तरह यह दुर्ग अलग-अलग समय पर मौर्य, सोलंकी, खिलजी, मुगल, प्रतिहार, चौहान, परमार वंश के शासकों के अधीन रह चुका है।

चित्तौड़गढ़ किले की अनूठी वास्तुकला एवं शानदार संरचना – Unique architecture and magnificent structure of Chittorgarh Fort

राजस्थान का गौरव माना जाने वाला यह चित्तौड़गढ़ का विशाल दुर्ग करीब 700 एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। वहीं करीब 13 किलोमीटर की परिधि में बना यह भारत का सबसे विशाल और आर्कषक दुर्गों में से एक है।

चित्तौड़गढ़ में यह किला गंभीरी नदी के पास और अरावली पर्वत शिखर पर सतह से करीब 180 मीटर की ऊंचाई पर बना हुआ है। राजपूतों के शौर्यता का प्रतीक माने जाने वाले इस विशाल दुर्ग के अंदर कई ऐतिहासिक स्तंभ, पवित्र मंदिर, विशाल द्धार आदि बने हुए हैं, जो कि इस दुर्ग की शोभा को और अधिक बढ़ाते हैं।

चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण इतिहास - History of Chittorgarh Fort in Hindi
चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण इतिहास – History of Chittorgarh Fort in Hindi

आपका बता दें कि चित्तौड़गढ़ के इस विशाल किले तक पहुंचने के लिए 7 अलग-अलग प्रवेश द्धार से होकर गुजरना पड़ता है, जिसमें पेडल पोल, गणेश पोल, लक्ष्मण पोल, भैरों पोल, जोरला पोल, हनुमान पोल, और राम पोल आदि द्वार के नाम शामिल हैं। वहीं इसके बाद मुख्य द्धार सूर्य पोल को भी पार करना पड़ता है।

यह ऐतिहासिक और भव्य दुर्ग के परिसर में करीब 65 ऐतिहासिक और बेहद शानदार संरचनाएं बनी हुई हैं, जिनमें से 19 मुख्य मंदिर, 4 बेहद आर्कषक महल परिसर, 4 ऐतिहासिक स्मारक एवं करीब 20 कार्यात्मक जल निकाय शामिल हैं।

इन सभी के अलावा 700 एकड़ क्षेत्रफल में फैले भारत के इस विशाल दुर्ग के अंदर सम्मिदेश्वरा मंदिर, मीरा बाई मंदिर, नीलकंठ महादेव मंदिर, श्रृंगार चौरी मंदिर, जैन मंदिर, गणेश मंदिर, कुंभ श्याम मंदिर, कलिका मंदिर, और विजय स्तंभ (कीर्ति स्तंभ) भी शोभायमान है, जो कि न सिर्फ इस विशाल किले के आर्कषण को और भी अधिक बढ़ा रहे हैं, बल्कि राजपूत वंश के गौरवशाली अतीत को भी दर्शाते हैं।

इसके साथ ही दुर्ग के अंदर बने यह स्तंभ पर्यटकों का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं।

chittorgarh fort के इस विशाल किले के अंदर मंदिर, जलाशयों और विजय स्तंभों के साथ-साथ कई बेहद सुंदर महल भी बने हुए हैं।

इस किले के अंदर बने राणा कुंभा, पद्धमिनी और फतेह प्रकाश महल इस किले की सुंदरता और आर्कषण को और अधिक बढ़ा रहे हैं। आपको बता दें कि फतेह प्रकाश पैलेस में मध्यकाल में इस्तेमाल किए जाने वाले अस्त्र-शस्त्र, मूर्तियां, कला समेत कई पुरामहत्व वाली वस्तुओं का बेहतरीन संग्रह किया गया है।

इसके साथ ही इस ऐतिहासिक महल के अंदर झीना रानी महल के पास बने शानदार गौमुख कुंड भी इस किले के प्रमुख आर्कषणों में से एक है।

यही नहीं चित्तौड़गढ़ किले के अंदर बने जौहर कुंड का भी अपना अलग ऐतिहासिक महत्व है। इस शानदार कुंड को देखने दूर-दूर से पर्यटक आते हैं।

इस किले में बने जौहर कुंड में अपने स्वाभिमान और सम्मान को बचाने के लिए रानी पद्मावती, रानी कर्णाती एवं रानी फूलकंवर ने खुद को अग्नि में न्यौछावर या जौहर ( आत्मदाह ) कर दिया था।

इसके साथ ही भारत के इस ऐतिहासिक और विशाल किले के परिसर में बने शानदार जलाशय (तालाब) भी इस दुर्ग की शोभा बढ़ाते हैं।

इतिहासकारों की माने तो पहले इस किले के अंदर पहले करीब 84 सुंदर जलाशय थे, जिसमें से केवल वर्तमान में महज 22 ही बचे हुए हैं। जिनका अपना एक अलग धार्मिक महत्व है।

भारत के इस विशाल चित्तौड़गढ़ दुर्ग को अगर विहंगम दृश्य से देखा जाए तो यह मछली की आकार की तरह प्रतीत होता है। मौर्यकाल में बने इस शानदार किले को राजपूताना और सिसोदियन वास्तुशैली का इस्तेमाल कर बनाया गया है, जो कि प्राचीनतम कृति का अनूठा नमूना है, साथ ही राजपूतों की अद्म्य शौर्य, शक्ति और महिलाओं के अद्धितीय साहस का प्रतीक है।

रणनीति के दृष्टिकोण से चित्तौड़गढ़ का राजधानी के रूप में महत्व –

chittorgarh fort राजपूताने में हमेशा एक विशेष महत्व रखता है। इसे मेवाड़ के गुहिलवंशियों की पहली राजधानी के रूप में सम्मान प्राप्त है, जिसे उन्होंने मौर्यवंश के अंतिम शासक मानमोनी को हराकर अपने अधिकार में कर लिया था।

यह दुर्ग अरावली की पहाड़ी पर उत्तर से दक्षिण की ओर लंबाई में बना है, जिसमें बीच में समतल भूमि आ जाने के कारण एक कुंड, तालाब, मंदिर, महल आदि सभी एक निश्चित निर्माण-योजना के तहत समय-समय पर बनते रहे हैं।

कुछ जलाशय तो ऐसे हैं जो निरन्तर जलापूर्ति के साधन के रूप में काम आते रहे हैं। इस गढ़ के सम्बन्ध में प्रचलित एक कहावत है जो इस दुर्ग के महत्व को बताता है।

चित्तौड़गढ़ किले के अंदर बनी शानदार संरचनाएं एवं प्रमुख आर्कषण – Magnificent structures and major attractions built inside the Chittorgarh Fort

विजय स्तंभ :

चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण इतिहास - History of Chittorgarh Fort in Hindi
चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण इतिहास – History of Chittorgarh Fort in Hindi

राजस्थान के chittorgarh fort के अंदर बना विजय स्तंभ इस किले के प्रमुख आर्कषण एवं दर्शनीय स्थलों में से एक है। इस स्तंभ को मालवा के सुल्तान महमूद शाह की खिलजी ऊपर जीत के जश्न में बनाया गया था।

इस अनूठी वास्तुशैली से निर्मित विजय स्तंभ को शक्तिशाली शासक राणा कुंभा द्धारा बनवाया गया था। करीब इस अद्भुत संरचना के निर्माण में करीब 10 साल का लंबा समय लगा था।

विजय स्तंभ की सबसे ऊपरी एवं नौवीं मंजिल पर घुमावदार सीढि़यों से पहुंचा जा सकता है, वहीं इससे चित्तौड़गढ़ शहर का अद्भुत नजारा देख सकते हैं।

लाखोटा की बारी से राज टीले तक सड़क सीधी दक्षिण में मुड़ जाती है, उसी स्थान पर बायीं ओर 75 फीट ऊँचा, सात मंजिलों वाला एक स्तम्भ बना है,

जिसका निर्माण चौदहवीं शताब्दी में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के बघेरवाल महाजन सा नांय के पुत्र जीजा ने करवाया था। यह स्तम्भ नीचे से ३० फुट तथा ऊपरी हिस्से पर15 फुट चौड़ा है तथा ऊपर की ओर जाने के लिए तंग नाल बनी हुई हैं।

जैन कीर्ति स्तम्भ वास्तव में आदिनाथ का स्मारक है, जिसके चारों पार्श्व पर आदिनाथ की ५ फुट ऊँची दिगम्बर (नग्न) जैन मूर्ति खड़ी है तथा बाकी के भाग पर छोटी-छोटी जैन मूर्तियाँ खुदी हुई हैं।

इस स्तम्भ के ऊपर की छत्री बिजली गिरने से टूट गई थी तथा इससे इमारत को बड़ी हानि पहुँची थी। महाराणा फतह सिंह जी ने इस स्तम्भ की मरम्मत करवाई।

कीर्ति स्तंभ :

भारत के इस विशाल दुर्ग के परिसर में बना कीर्ति स्तंभ या ( टॉवर ऑफ फ़ेम ) भी इस किले की सुंदरता को बढ़ा रहा है। 22 मीटर ऊंचे इस अनूठे स्तंभ का निर्माण जैन व्यापारी जीजा जी राठौर द्धारा दिया गया था।

पहले जैन तीर्थकर आदिनाथ को सर्मपित इस स्तंभ को जैन मूर्तियों से बेहद शानदार तरीके से सजाया गया है। इस भव्य मीनार के अंदर कई तीर्थकरों की मूर्तियां भी स्थापित हैं। इस तरह कीर्ति स्तंभ का ऐतिहासिक महत्व होने के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी है।

राणा कुंभा महल :

राजपूतों के अदम्य साहस का प्रतीक माने जाने वाले इस विशाल chittorgarh fort के दुर्ग के परिसर में बना राणा कुंभा महल भी इस किले के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है।

यह अति रमणीय महल विजया स्तंभ के प्रवेश द्धार के पास स्थित है, इस महल को चित्तौड़गढ़ किले का सबसे प्राचीन स्मारक भी माना जाता है। वहीं उदयपुर नगरी को बसाने वाले राजा उदय सिंह का जन्म इसी महल में हुआ था।

राणा कुंभा महल में मुख्य प्रवेश द्धार सूरल पोल के माध्यम से भी घुसा जा सकता है। राणा कुंभा पैलेस में ही मीरा बाई समेत कई प्रसिद्ध कवि भी रहते थे। इस महल में कई सुंदर मूर्तियां भी रखी गई हैं, जो कि इस महल के आर्कषण को और अधिक बढ़ा रही हैं।

रानी पद्मिनी महल :

राजस्थान की शान माने जाने वाले चित्तौड़गढ़ किले का यह बेहद खूबसूरत और आर्कषक महल है। पद्मिनी पैलेस इस किले के दक्षिणी हिस्से में एक सुंदर सरोवर के पास स्थित है। पद्मिनी महल एक तीन मंजिला इमारत है, जिसके शीर्ष को मंडप द्धारा सजाया गया है।

अद्भुत वास्तुशैली से निर्मित यह महल पानी से घिरा हुआ है, जो कि देखने में बेहद रमणीय लगता है। 19 वीं सदी में पुर्ननिर्मित इस आर्कषक महल पर अलाउद्दीन खिलजी को रानी पद्मावती ने अपनी एक झलक दिखाने की इजाजत दी थी।

कुंभश्याम मंदिर :

भारत के इस सबसे विशाल किले के दक्षिण भाग में मीराबाई को समर्पित कुंभश्याम मंदिर बना हुआ है।

पाडन पोल :

यह दुर्ग का प्रथम प्रवेश द्वार है। कहा जाता है कि एक बार भीषण युद्ध में खून की नदी बह निकलने से एक पाड़ा (भैंसा) बहता-बहता यहाँ तक आ गया था।

इसी कारण इस द्वार को पाडन पोल कहा जाता है। जब चित्रकूट पराधीन हो गया तब यहाँ के वीरयोध्दा गाडीलोहरो ने प्रतिज्ञा ली थी जब तक चित्रकूट स्वत्रंत न हो जाये तब तक वे 

  1.  इस दुर्ग पर नहीं चढेगे
  2.  घर बना कर नहीं रहेंगे
  3.  पिने के लिए पानी का रस्सा नहीं रखेंगे 

मिटटी के बर्तन में ही खायेगे … जेसी प्रतिज्ञाए ली थी

जन्म भूमि के प्रति देशभक्ति एवं स्वामी भक्ति की मिसाल कायम की और तब से अब ये स्वत्रंता प्रेमी बेलगाडी में ही घर बना कर देश के कोने कोने में तब से अब तक गुमनाम भटक रहे है कि गथा का प्राचीन सुरक्षित स्मारक पाडन पोल के समीप ही इन गाडीलोहारो की देश के प्रति देशभक्ति और बलिदान की गोरव गाथा को बताता है।

भैरव पोल :

पाडन पोल से थोड़ा उत्तर की तरफ चलने पर दूसरा दरवाजा आता है, जिसे भैरव पोल के रूप में जाना जाता है। इसका नाम देसूरी के सोलंकी भैरोंदास के नाम पर रखा गया है,

जो सन् १५३४ में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से युद्ध में मारे गये थे। मूल द्वार टूट जाने के कारण महाराणा फतहसिंह जी ने इसका पुनर्निर्माण कराया था।

हनुमान पोल :

दुर्ग के तृतीय प्रवेश द्वार को हनुमान पोल कहा जाता है। क्योंकि पास ही हनुमान जी का मंदिर है। हनुमान जी की प्रतिमा चमत्कारिक एवं दर्शनीय हैं।

गणेश पोल :

हनुमान पोल से कुछ आगे बढ़कर दक्षिण की ओर मुड़ने पर गणेश पोल आता है, जो दुर्ग का चौथा द्वार है। इसके पास ही गणपति जी का मंदिर है।

जोड़ला पोल :

यह दुर्ग का पाँचवां द्वार है और छठे द्वार के बिल्कुल पास होने के कारण इसे जोड़ला पोल कहा जाता है।

लक्ष्मण पोल :

दुर्ग के इस छठे द्वार के पास ही एक छोटा सा लक्ष्मण जी का मंदिर है जिसके कारण इसका नाम लक्ष्मण पोल है।

राम पोल :

लक्ष्मण पोल से आगे बढ़ने पर एक पश्चिमाभिमुख प्रवेश द्वार मिलता है, जिससे होकर किले के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं। यह दरवाजा किला का सातवां तथा अन्तिम प्रवेश द्वार है।

इस दरवाजे के बाद चढ़ाई समाप्त हो जाती है। इसके निकट ही महाराणाओं के पूर्वज माने जाने वाले सूर्यवंशी भगवान श्री रामचन्द्र जी का मंदिर है।

यह मंदिर भारतीय स्थापत्य कला एवं हिन्दू संस्कृति का उत्कृष्ट प्रतीक है। दरवाजे से प्रवेश करने के बाद उत्तर वाले मार्ग की ओर बस्ती है तथा दक्षिण की ओर जाने वाले मार्ग से किले के कई दर्शनीय स्थल दिखते हैं।

रावत बाघसिंह का स्मारक :

दुर्ग के प्रथम द्वार पाडन पोल के बाहर के चबूतरे पर ही रावत बाघसिंह का स्मारक बना हुआ है। महाराणा विक्रमादित्य के राज्यकाल में, सन् 1535 में यहाँ की अव्यवस्था से प्रेरित हो गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।

उस समय बालक होने के कारण हाड़ी रानी कर्मवती ने विक्रमादित्य व उदयसिंह को बूंदी भेजकर मेवाड़ के सरदारों को किले की रक्षा का कार्यभार सौंप दिया।

प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह ने मेवाड़ का राज्य चिन्ह धारण कर महाराणा विक्रमादित्य का प्रतिनिधित्व किया तथा लड़ता हुआ इसी दरवाजे के पास वीरगति को प्राप्त हुआ। उसी वीर की स्मृति में यह स्मारक बनाया गया है।

जयमल और कल्ला की छतरियाँ –

भैरव पोल के पास ही दाहिनी ओर दो छतरियाँ बनी हुई है। प्रथम चार स्तम्भों वाली छत्री प्रसिद्ध राठौड़ जैमल जयमल बदनोर के राजा) के कुटुंबी कल्ला की है तथा दूसरी, छः स्तम्भों वाली छत्री स्वयं जैमल की है, जिसके पास ही दोनों राठौड़ मारे गये थे।

सन् 1567 में जब बादशाह अकबर ने chittorgarh fort पर चढ़ाई की, उस समय सीसोदिया पता तथा मेड़तिया राठौर जैमल, दोनों महाराणा, उदयसिंह की अनुपस्थिति में दूर्ग के रक्षक नियुक्त हुए थे।

इसी तीसरे शाके की लड़ाई के दिनों में एक रात्रि जब जैमल एक टूटी दीवार की मरम्मत करा रहे थे, उस समय अकबर की गोली से उनकी एक टांग बेकार हो गयी।

लंगड़े जैमल को कल्ला ने अपने कंधों पर बिठाकर दूसरे दिन के युद्ध में उतारा था। उन दोनों ने मिलकर शत्रु सेना पर कहर ढा दिया। अन्त में दोनों भिन्न-भिन्न स्थानों पर वीरगति को प्राप्त हो गये। ये छतरियाँ उन्हीं की गौरवगाथाओं की याद दिलाती हैं।

पत्ता का स्मारक :

रामपोल में प्रवेश करते ही सामने की तरफ लगभग ५० कदम की दूरी पर स्थित चबूतरे पर सीसोदिया पत्ता के स्मारक का पत्थर है। आमेर के रावतों के पूर्वज पत्ता सन्1568 में अकबर की सेना से लड़ते हुए

इसी स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि युद्ध भूमि में एक पागल हाथी ने युद्धरत पत्ता को सूंड में पकड़कर जमीन पर पटक दिया जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।

कुकड़ेश्वर का कुण्ड तथा कुकड़ेश्वर का मंदिर :

रामपोल से प्रवेश करने के बाद सड़क उत्तर की ओर मुड़ती है। उससे थोड़ी ही दूर पर दाहिनी ओर कुकड़ेश्वर का कुंड है, जिसके ऊपर के भाग में कुकड़ेश्वर का मंदिर है। किंवदन्तियों के अनुसार ये दोनों रचनाएं महाभारत कालीन है तथा पाण्डव पुत्र भीम से जुड़ी हैं।

हिंगलू आहाड़ा के महल तथा रत्नेश्वर तालाब :

chittorgarh fort – कुकड़ेश्वर मंदिर से आगे बढ़ने पर दाहिनी तरफ सड़क से कुछ दूर हिंगलू आहाड़ा के महल हैं। आहाड़ में रहने के कारण मेवाड़ के राजाओं का उपनाम आहाड़ा हुआ।

डूंगरपुर तथा बांसवाड़े के राजा भी आहाड़ा कहलाते रहे। हिंगलू, डूंगरपुर का आहाड़ा सरदार था और इन महलों में रहता था, जिससे ये महल हिंगलू आहाड़ा के महल कहलाये। बूंदीवालों का हाड़ा के रूप में नाम प्रसिद्ध हो जाने से लोग इन महलों कोहिंगलू हाड़ा के महल कहने लगे।

इन महलों में महाराणा रत्नसिंह रहते थे। इसके पास बना तालाब महाराणा ने खुद बनवाया था, जो रत्नेश्वर का कुंड (रत्नेश्वर तालाब) के नाम से जानी जाती है। तालाब के पश्चिमी किनारे पर रत्नेश्वर महादेव का एक प्राचीन मंदिर है।

लाखोटा की बारी :

रत्नेश्वर कुंड से थोड़ी दूर पर पहाड़ी के पूर्वी किनारे के समीप लाखोटा की बारी है। यह एक छोटा सा दरवाजा है, जिससे दुर्ग के नीचे जा सकते हैं। कहा जाता है कि इसी द्वार के पास अकबर की गोली से जयमल लंगड़ा हो गया था।

महावीर स्वामी का मंदिर :

जैन कीर्ति स्तम्भ के निकट ही महावीर स्वामी का मन्दिर है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा के राज्यकाल में ओसवाल महाजन गुणराज ने करवाया थ। हाल ही में जीर्ण-शीर्ण अवस्था प्राप्त इस मंदिर का जीर्णोद्धार पुरातत्व विभाग ने किया है। इस मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है।

नीलकंठ महादेव का मंदिर :

महावीर स्वामी के मंदिर से थोड़ा आगे बढ़ने पर नीकण्ठ महादेव का मंदिर आता है। कहा जाता है कि महादेव की इस विशाल मूर्ति को पाण्डव भीम अपने बाजूओं में बांधे रखते थे।

सूरजपोल तथा चूड़ावत साँई दास का स्मारक :

नीलकंठ महादेव के मंदिर के बाद किले के पूरब की तरफ एक दरवाजा है, जो सूरज पोल के नाम से जाना जाता है। यहाँ से दुर्ग के नीचे मैदान में जाने के लिए एक रास्ता बना हुआ है।

इस दरवाजे के पास ही एक चबूतरा बना है, जो संलूबर के चंडावत सरदार रावत साईदास जी का स्मारक है। वे सन् 1568 में अकबर की सेना के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।

अद्बद्जी का मंदिर :

रावत साँईदास के स्मारक से दक्षिण की तरफ जाने पर दाहिनी ओर अद्बद् (अद्भुतजी) का मंदिर है, जिसे महाराणा रायमल ने सन् 1394 में बनवाया था।

जीर्ण-शीर्ण अवस्था प्राप्त इस मंदिर की स्थापत्य कला दर्शनीय है। मंदिर में शिवलिंग है तथा उसके पीछे दीवार पर महादेव की विशाल त्रिमूर्ति है, जो देखने में समीधेश्वर मंदिर की प्रतिमा से मिलती है। अद्भुत प्रतिमा के कारण ही इस मंदिर को अद्बद् जी का मंदिर कहा जाता है।

राजटीला तथा चत्रंग तालाब :

अद्बद्जी के मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर राजटीला नामक एक ऊँचा स्थान है। कहा जाता है कि यहीं पहले मौर्यवंशी शासक मान के महल थे।

कुछ लोगों का मानना है कि प्राचीन काल में राजाओं का राज्याभिषेक इसी स्थान पर हुआ करता था। इस स्थान के पास से सड़क पश्चिम की ओर मुड़ जाती है।

सड़क के पश्चिमी सिरे के पास चित्रांगद मौर्य का निर्माण कराया हुआ तालाब है, जिसको चत्रंग कहते हैं। यहाँ से अनुमानतः पौने मील दक्षिण मं। चित्तौड़ की पहाड़ी समाप्त हो जाती है और उसके नीचे कुछ ही दूरी पर चित्तोड़ी नाम की एक छोटी पहाड़ी है।

चित्तौड़ी बूर्ज व मोहर मगरी :

दुर्ग का अंतिम दक्षिणी बूर्ज चित्तौड़ी बूर्ज कहलाता है और इस बूर्ज के १५० फीट नीचे एक छोटी-सी पहाड़ी (मिट्टी का टीला) दिखाई पड़ती है। यह टीला कृत्रिम है और कहा जाता है 

सन् 1567 ई. में अकबर ने जब चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब अधिक उपयुक्त मोर्चा इसी स्थान को माना और उस मगरी पर मिट्टी डलवा कर उसे ऊँचा उठवाया, ताकि किले पर आक्रमण कर सके। प्रत्येक मजदूर को प्रत्येक मिट्टी की टोकरी हेतु एक-एक मोहर दी गई थी। अतः इसे मोहर मगरी कहा जाता है।

चित्तौड़ के जौहर :

पहला जौहर रावल रतनसिंह के शासनकाल अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय 1303 में रानी पिद्मनी के नेेतृत्व जौहर किया गया |

दूसरा जौहर राणा विक्रमादित्य के शासनकाल मेें सन् 1534 ई. में गुजरात के शासक बहादुर शाह के आक्रमण केे समय में रानी कर्णवती के नेतृत्व में 8मार्च,1534 ई. हुआ|

तीसरा जौहर राणा उदयसिंह के शासनकाल में अकबर के आक्रमण के समय 25 फरवरी,1568 में पत्ता सिसौदिया की पत्नी फूल कँवर के नेतृत्व में जौहर किया गया |

चित्तौड़गढ़ के किले पर हुए आक्रमण – Attack on Chittorgarh Fort

राजस्थान की शान माने जाने वाले chittorgarh fort के इस ऐतिहासिक किले पर कई हमले और युद्द भी किए गए, लेकिन समय-समय पर राजपूत शासकों ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए इस किले की सुरक्षा की।

चित्तौड़गढ़ किले पर 15वीं से 16वीं शताब्दी के बीच 3 बार कई घातक आक्रमण हुए

अलाउद्दीन खिलजी ने किया चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण:

सन 1303 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने इस किले पर आक्रमण किया था। दरअसल, रानी पद्मावती की खूबसूरती को देखकर अलाउद्धीन खिलजी उन पर मोहित हो गया,

वह रानी पद्मावती को अपने साथ ले जाना चाहता था, लेकिन रानी पद्मावती के साथ जाने से मना करने जिसके चलते अलाउ्दीन खिलजी ने इस किले पर हमला कर दिया।

जिसके बाद अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध रानी पद्मिनी के पति राजा रतन सिंह और उनकी सेना ने अलाउद्धीन खिलजी के खिलाफ वीरता और साहस के साथ युद्ध लड़ा,लेकिन उन्हें इस युद्ध में पराजित होना पड़ा।

वहीं निद्दयी शासक अलाउद्दीन खिलजी से युद्द में हार जाने के बाद भी रानी पद्मावती ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने राजपूतों की शान, स्वाभिमान और अपनी मर्यादा के खातिर इस किले के विजय स्तंभ के पास करीब 16 हजार रानियों, दासियों व बच्चों के साथ ”जौहर” या सामूहिक आत्मदाह किया।

वहीं आज भी इस किले के परिसर के पास बने विजय स्तंभ के पास यह जगह जौहर स्थली के रुप में पहचानी जाती है। इसे इतिहास का सबसे पहला और चर्चित जौहर स्थल भी माना जाता है।

इस तरह अलाउद्दीन खिलजी की रानी पद्मावती को पाने की चाहत कभी पूरी नहीं हो सकी एवं चित्तौड़गढ़ का यह विशाल किला राजपूत शासकों एवं महलिाओं के अद्धितीय साहस, राष्ट्रवाद एवं बलिदान को एक श्रद्धांली है।

गुजरात के शासक बहादुर शाह ने किया चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण:

चित्तौड़गढ़ के इस विशाल दुर्ग पर 1535 ईसवी में गुजरात के शासक बहादुर शाह ने आक्रमण किया और विक्रमजीत सिंह को हराकर इस किले पर अपना अधिकार जमा लिया।

तब अपने राज्य की रक्षा के लिए रानी कर्णावती ने उस समय दिल्ली के शासक हुमायूं को राखी भेजकर मद्द मांगी, एवं उन्होंने दुश्मन सेना की अधीनता स्वीकार नहीं की एवं रानी कर्णावती ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए करीब 13 हजार रानियों के साथ ”जौहर” या सामूहिक आत्मदाह कर दिया। इसके बाद उनके बेटे उदय सिंह को चित्तौड़गढ़ का शासक बनाया गया।

मुगल बादशाह अकबर ने किया चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर हमला:

मुगल शासक अकबर ने 1567 ईसवी में chittorgarh fort पर हमला कर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। वहीं राजा उदयसिंह ने इसके खिलाफ संघर्ष नहीं किया और इसके बाद उन्होंने पलायन कर दिया, और फिर उदयपुर शहर की स्थापना की।

हालाकिं, जयमाल और पत्ता के नेतृत्व में राजपूतों ने अकबर के खिलाफ अपने पूरे साहस के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन वे इस युद्ध को जीतने में असफल रहे, वहीं इस दौरान जयमाल, पत्ता समेत कई राजपूतों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी थी।

वहीं इसके बाद मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़गढ़ के इस किले पर अपना कब्जा कर लिया और उसकी सेना ने इस किले को जमकर लूटा और नुकसान पहुंचाने की भी कोशिश की। जिसके बाद पत्ता की पत्नी रानी फूल कंवर ने हजारों रानियों के साथ ”जौहर” या सामूहिक आत्मदाह किया।

वहीं इसके बाद 1616 ईसवी में मुगल सम्राट जहांगीर ने चित्तौड़गढ़ के किले को एक संधि के तहत मेवाड़ के महाराजा अमर सिंह को वापस कर दिया। वहीं वर्तमान में भारत के इस सबसे बड़े किले के अवशेष इस जगह के समृद्ध इतिहास की याद दिलाते हैं।

चित्तौड़गढ़़ किले तक ऐसे पहुंचे – Reached Chittorgarh Fort

chittorgarh fort – राजस्थान के इस ऐतिहासिक दुर्ग चित्तौड़गढ़ किले को देखने के लिए पर्यटक सड़क, वायु, रेल तीनों मार्गों द्धारा पहुंच सकते हैं। जो पर्यटक हवाई मार्ग से इस दुर्ग को देखना चाहते हैं, उनके लिए सबसे पास उदयपुर एयरपोर्ट है, जो कि चित्तौड़गढ़ से करीब 70 किमी की दूरी पर स्थित है।

उदयपुर एयरपोर्ट देश के सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। एयरपोर्ट से टैक्सी, कैब या फिर बस की सहायता से इस किले तक पहुंचा जा सकता है। वहीं अगर पर्यटक ट्रेन से चित्तौड़गढ़ पहुंचते हैं तो चित्तौड़गढ़ एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है, जो कि देश के प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।

इसके साथ ही चित्तौड़गढ़ जिला, राजस्थान के प्रमुख शहरों एवं पड़ोसी राज्यों से सड़क मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यहां से अच्छी बस सुविधा भी उपलब्ध है। आपको बता दें कि दिल्ली से चित्तौड़गढ़ की दूरी करीब 566 किलोमीटर है। यहां से सड़क मार्ग से करीब 10 घंटे लगते हैं।

*